भारत में औपनिवे्ियक दौर में और उसके बाद के शुरुआती द्यकों में जाति को आधार बनाकर परिवर्तनकारी राजनीति करने की को्िय्यें हुईं। डाॅ. अम्बेडकर ने दलितों में राजनीतिक चेतना भरने की पुरजोर को्िय्य की। द्ियण भारत में रामास्वामी नायकर पेरियार के नेतृत्व में ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन चला। इसी तरह राम मनोहर लोहिया ने पिछड़ों की राजनीतिक लामबन्दी करके कांग्रेस और ऊँची जातियों के वर्चस्व को तोड़ने की को्िय्य की, लेकिन इसके बावजूद सामान्यतयाः जाति और राजनीति के आपसी सम्बन्धों को सन्देह की नजर से देखा जाता है। राजनीति में जातिवाद की ्ियकायत करते हुए अक्सर इसे हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए खास माना जाता है। आमतौर पर लोकतान्त्रिक राजनीति को आधुलिकता और जाति को परम्परा का प्रतीक मानते हुए दोनों के विरोधाभासपूर्ण सम्बन्धों पर जोर देने की प्रवृति रही है। अकादमिक स्तर पर राजनीति में जाति की भूमिका को समझने की को्िय्य सन् साठ के द्यक में शुरू हुई। 1964 में लिखी अपनी पुस्तक में मोरिस जौन्स ने यह माना कि स्वतन्त्र भारत की नई परिस्थितियों के कारण राजनीति जाति के लिए तथा जाति राजनीति के लिए महत्त्वपूर्ण हो गई है।