महिला सशक्तीकरण के दौर में बदलते हुए पुरूष-नारी सम्बन्धः भारत के सिशेष सन्दर्भ में
प्रभात कुमार ओझा, तौफीक अहमद
सभ्यता के प्रारम्भ से, तथाकथित ’’सोशल कामनसेन्स’’ के प्लान समाज तक, सदैव से सभ्यता का यह आधा भाग, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। प्रश्न यह उठता है कि क्यों स्त्री के नैसर्गिक व्यक्तित्व का हनन हर सभ्यता का नैतिक खेल रहा है? इस प्रश्न का उत्तर क्या पुरूष के स्त्री को जैविक सीमिाओं से मुक्त होने में है, अधिक बलशाली होने में है, अधिक योग्य होने में है, अथवा स्त्री को सम्पत्ति समझना, एक निम्न प्रजाति का समझने में है अथवा यह अर्ह का प्रश्न है? वास्तव में सदियों से यह विवाद चलता रहा है व इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की गयी है। उल्लेखनीय है कि सभ्यताओं के स्वर्ण युग व अन्ध युग की भांति स्त्रियों के जीवन में भी इसी प्रकार का समय आता रहा है। वैदिक काल में जब नारी पुरूष समान थे, स्त्रियों को जनेऊ धारण करने से लेकर शिक्षा प्राप्त करने तथा इच्छानुसार वर चुनने का अधिकार था, वह वीरांगना थी, वह विदुषी थी, गार्गी, अपाला स्त्री इतिहास के वे स्वर्णाक्षर हैं, जिन्होंने आने वाले अन्ध युग में उसकी योग्यता, क्षमता, पर प्रश्नोत्तर नहीं लगने दिया। मध्य काल की परम्पराओं ने, अनेक धार्मिक मान्यताओं की विकृत व्यवस्थाओं ने स्त्री के जीवन का वह अन्धकार युग प्रारम्भ किया, जो 21वीं शताब्दी तक आते-आते भी पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हुआ है।
प्रभात कुमार ओझा, तौफीक अहमद. महिला सशक्तीकरण के दौर में बदलते हुए पुरूष-नारी सम्बन्धः भारत के सिशेष सन्दर्भ में. International Journal of Humanities and Social Science Research, Volume 2, Issue 5, 2016, Pages 38-39