भारतीय सांस्कृतिक परम्परा का शुभारम्भ वनों से ही हुआ है। इसी कारण हमारी प्राचीन संस्कृति ‘आरण्यक संस्कृति‘ के नाम से जानी जाती है। पर्यावरण संरक्षण प्राचीन काल से हमारी संस्कृति का एक अटूट अंग रहा है। इसका मूल आधार प्रकृति पर हमारी निर्भरता एंव उसके प्रति हमारा सम्मान है। वेदों में स्थलीय पर्यावरण, जलीय पर्यावरण एवं वायवीय पर्यावरण के संरक्षण और उसके दूषित होने पर सुधार करने की विधि और प्रेरणायें दी गयी है। पृथ्वी में विद्यमान, पृथ्वी से उपजने वाली और पृथ्वी की विकारभूत सभी वस्तुओं का संरक्षण तथा संशोधन आवश्यक है। जल के महत्व का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जल ही जीवन है। इस जल को बनाये रखने और नष्ट न होने देने तथा उसके शुद्धीकरण का सदा ध्यान रखना चाहिए। इसी प्रकार वायुमण्डल के शुद्धीकरण पर जोर दिया गया है। वेदों में यह उल्लेख किया गया है कि मनुष्य अपने प्रयासों से वायु, जल तथा औषधीय-वनस्पति को इतना शुद्ध रखें कि वे माधुर्य की धारा बहाया करें और उनके संसर्ग में रहने वाले मनुष्य समेत समस्त जीव-जन्तु सुख और शांति का अनुभव करें। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण सुरक्षा एवं संतुलन को धार्मिक आधार प्रदान कर, उसे हमारे जीवन के अनिवार्य अंग के रूप में उल्लेख किया गया है। पर्यावरण से सम्बन्धित सभी तत्वों, वन एवं वनस्पतियों को देवत्व का अंश बताकर उनके प्रति न केवल आदरभाव प्रदर्शित किया गया तथा पर्यावरण सुरक्षा को सुनिश्चित आधार प्रदान किया गया है अपितु पर्यावरण को धार्मिक आस्था से जोड़कर उसके संरक्षण एवं संवर्धन का मार्ग भी प्रशस्त किया गया है। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण को कभी भी जड़ पदार्थ मात्र नही माना गया। उन्हें हमेशा सजीव प्राकृतिक तत्व के रूप में सम्मान दिया गया। पर्यावरण से ही हमारी संस्कृति उपजी, पनपी और विकसित हुई, इसलिए आदिकाल से लेकर आधुनिक युग मे पर्यावरण के महत्व को समझते हुए पर्यावरण के प्रति अनुराग तथा उनकी रक्षा कर और उनके सहयोग से सुखी व संतुलित जीवन बिताने पर बल दिया गया है।
डॉ. धर्मेंन्द्र यादव. वेदों में पर्यावरणीय संचेतना. International Journal of Humanities and Social Science Research, Volume 7, Issue 6, 2021, Pages 67-70