विदर्भ का कृषि परिदृश्य: देशज समाज कार्य हस्तक्षेप की संभावनाएं
अभिषेक कुमार राय
भारतीय जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा (60%) कृषि पर निर्भर है जिनकी आजीविका का प्राथमिक स्रोत कृषि है। यह राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को आधार प्रदान करने के साथ ही देश की खाद्य और पोषण सुरक्षा को मजबूत बनाती है। देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में कृषि एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में इसका हिस्सा लगातार घटकर मात्र 20.19 प्रतिशत (2020-21) रह गया है। वहीं सकल घरेलू उत्पाद में अन्य क्षेत्र का हिस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है और कृषि का हिस्सा पिछड़ता जा रहा है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में आय असंतुलन, एक पेशे के रूप में कृषि व्यवसाय के सम्मान में कमी और किसानों की गरिमा में क्षरण का संकट पैदा हुआ है। परिणाम स्वरूप देश में ‘किसान आत्महत्या’ एक गंभीर संकट बनकर उभरा है, जो देश, कृषि एवं किसान सभी के लिए प्रतिकूल है। 1995 से 2018 तक देश में 4 लाख से अधिक किसान अपना जीवन समाप्त कर चुके है। विदर्भ में किसान आत्महत्या की स्थिति गंभीर बनी हुई है, जो ढ़ाई दशक से जारी है। भारत सरकार एवं राज्य सरकार के कई कृषि योजनाओं, पैकेजों, किसान कर्जमाफी के बाद भी यहां किसानों के हालात में सुधार देखने को नहीं मिल रहा है और किसान आत्महत्याएं बढ़ती जा रही हैं। 2001 से 2018 तक विदर्भ में 17,547 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वही 2019 में 1,108 किसान और 2020 में 1,230 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। विदर्भ का किसान बढ़ती कृषि लागत एवं किसान कर्ज, कम उत्पादकता एवं फसलों की कीमत में गिरावट, कृषि सिंचाई की कमी एवं प्राकृतिक आपदा, ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त बुनियादी सुविधाओं के अभाव एवं अंतर्दृष्टि की कमी एवं कर्जमाफी की राजनीति से जूझ रहा है, जो उनके दीर्घकालिक समाधान की जगह अल्पकालिक समाधान दे कर चली जाती है। विदर्भ में पहले बहु-फसली खेती की संस्कृति थी, जिसमें कम पूंजी, कम सिंचाई, कम खाद एवं स्वयं के बीज होते थे, जो किसान को कर्ज की तरफ नहीं जाने देते थे। तब यहां की खेती किसान केंद्रित होती थी, लेकिन आज विदर्भ में नकदी खेती की संस्कृति जोरों पर है। जिसके लिए भारी पूंजी, खाद, उर्वरक, सिंचाई के बाद भी किसान कम उत्पादकता, दाम की अस्थिरता, लागत मूल्य का लाभ नहीं मिल पाने से कर्ज में फँस जाता है। जिसका कारण खेती का किसान केंद्रित होने के बजाय बाजार केंद्रित होना है। आज विदर्भ में फसल बहु-विविधता, खाद्य एवं पोषण सुरक्षा तथा ग्रामीण आबादी की आजीविका के लिए कृषि में सतत विकास की आवश्यकता है। इस शोध पत्र का ‘मुख्य उद्देश्य’ यह देखना है कि विदर्भ में खेती की स्थानीय पद्धति की विशिष्टता क्या थी? और यह विदर्भ में कैसे लुप्त हुई? साथ ही विदर्भ की खेती में सुधार एवं सतत विकास में देशज समाज कार्य क्या हस्तक्षेप कर सकता है? यह शोध मुख्यतः गुणात्मक प्रकृति पर आधारित है, जिसमें गुणात्मक प्रविधि, उपकरण का प्रयोग करते हुए धरातलीय तथ्यों का संकलन किया गया है और विषयगत विश्लेषण से शोध पत्र की व्यापक व्याख्या कर विश्लेषण एवं संभावित देशज समाज कार्य हस्तक्षेप प्रस्तुत किया गया है।
अभिषेक कुमार राय. विदर्भ का कृषि परिदृश्य: देशज समाज कार्य हस्तक्षेप की संभावनाएं. International Journal of Humanities and Social Science Research, Volume 8, Issue 1, 2022, Pages 96-109